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महत्त्वपूर्ण निर्णय
वर्ष 2024 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए 100 महत्त्वपूर्ण निर्णय (भाग -2)
« »27-Dec-2024
करनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा निर्धारित विधि की अनदेखी करना तथा उसके बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाना एक भौतिक त्रुटि होगी, जो आदेश के स्वरूप में स्पष्ट है।
अजय ईश्वर घुटे एवं अन्य बनाम मेहर के. पटेल एवं अन्य का मामला
- उच्चतम न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को खारिज कर दिया तथा कहा कि उच्च न्यायालय प्रारंभिक जाँच करने में विफल रहा है तथा केवल आदेश के विवरण के आधार पर दिया गया आदेश पूरी तरह से अवैध है।
उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक का मामला
- उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन में सुधार के निर्देश दिये हैं, जिसमें इसकी कार्यकारी समिति में महिलाओं के लिये आरक्षण अनिवार्य किया गया है। इसने महिलाओं के लिये एक पदाधिकारी पद सहित विशिष्ट सीटें आरक्षित की हैं, ताकि महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके।
कोलकाता नगर निगम एवं अन्य. बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य का मामला
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि कोलकाता नगर निगम द्वारा बिना उचित प्रक्रिया के निजी संपत्ति का अधिग्रहण करना अवैध था। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार को यथावत रखा, जिसमें नोटिस, उचित क्षतिपूर्ति एवं सार्वजनिक उद्देश्य सहित प्रमुख उप-अधिकारों की पहचान की गई।
एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य का मामला
- उच्चतम न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के अनुसार परिसीमा अवधि का पालन करने के महत्त्व को रेखांकित किया। न्यायालय ने एक भागीदार की मृत्यु के कारण भागीदारी फर्म के विघटन के बहुत समय बाद दायर एक समय-बाधित वाद को खारिज कर दिया।
शेंटो वर्गीस बनाम जुल्फिकार हुसैन एवं अन्य का मामला
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब संविधि में यह अनिवार्य नहीं है कि कार्य निर्धारित समयावधि के अंदर पूर्ण किया जाए, तो इसका अभिप्राय यह होगा कि कार्य उचित समयावधि के अंदर पूर्ण किया जाना चाहिये। यह अभिनिर्णय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 102 (3) के संदर्भ में माना गया।
अनीस बनाम NCT राज्य सरकार
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 106 के अनुप्रयोग से संबंधित सिद्धांतों का निर्वचन किया है जो इस प्रकार हैं:
- न्यायालय को आपराधिक मामलों में IEA की धारा 106 को सावधानी एवं सतर्कता के साथ लागू करना चाहिये। यह नहीं कहा जा सकता कि आपराधिक मामलों में इसका कोई अनुप्रयोग नहीं है।
- अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के अपराध की ओर इंगित करने वाली परिस्थितियों का साक्ष्य प्रस्तुत करने में असमर्थता की क्षतिपूर्ति के लिये इस धारा का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
- इस धारा का प्रयोग दोषसिद्धि का समर्थन करने के लिये तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि अभियोजन पक्ष ने अपराध को सिद्ध करने के लिये आवश्यक सभी तत्त्वों को सिद्ध करके दायित्व का निर्वहन नहीं कर लिया हो।
- यह अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करने के कर्त्तव्य से मुक्त नहीं करता है कि कोई अपराध किया गया था, भले ही यह मामला विशेष रूप से अभियुक्त के ज्ञान में हो तथा यह अभियुक्त पर यह सिद्ध करने का भार नहीं डालता है कि कोई अपराध कारित नहीं किया गया था।
- यह धारा उन मामलों में लागू नहीं होती है, जहाँ प्रश्नगत तथ्य, अपनी प्रकृति को देखते हुए, ऐसा हो कि वह न केवल अभियुक्त को बल्कि अन्य लोगों को भी ज्ञात हो सकता है, यदि वे घटना के समय उपस्थित थे।
- यह धारा उन मामलों में लागू होगी, जहाँ अभियोजन पक्ष के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह ऐसे तथ्य सिद्ध करने में सफल रहा है, जिनसे अभियुक्त के अपराध के विषय में उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
शरीफ अहमद एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि गैर-जमानती वारंट तब तक जारी नहीं किया जाना चाहिये, जब तक कि अभियुक्त पर कोई जघन्य अपराध का आरोप न हो तथा उसके द्वारा विधिक प्रक्रिया से बचने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ या उन्हें नष्ट करने की संभावना न हो।
मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने माना है कि जब मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन विवेचना का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध का संज्ञान लिया है।
विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य
- उच्चतम न्यायालय (SC) ने अभियुक्त के अभिकथन को अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के साथ शमनीय करने के महत्त्व पर बल दिया तथा प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति के संबंध में पीड़िता की गवाही को चुनौती देने में विफलता पर ध्यान दिया, जिससे यौन उत्पीड़न के मामलों में गहन मूल्यांकन के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।
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दसारी श्रीकांत बनाम तेलंगाना राज्य
- अपील की प्रक्रिया के दौरान शिकायतकर्त्ता से केवल उसके विवाह के आधार पर, पीछा करने एवं आपराधिक धमकी के लिये व्यक्ति की सजा को रद्द करने का उच्चतम न्यायालय का निर्णय व्यक्तिगत संबंधों एवं विधिक कार्यवाही के मध्य अंतरसंबंध के विषय में प्रश्न करता है। इसके अतिरिक्त, यह मामला न्यायिक निर्णयों में विवाह जैसी बदलती परिस्थितियों पर विचार करने के महत्त्व को प्रकटित करता है।
रविकुमार धनसुखलाल महेता एवं अन्य बनाम गुजरात उच्च न्यायालय एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने जिला न्यायाधीशों के रिक्त पदों के लिये गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा लागू की गई पदोन्नति प्रक्रिया को यथावत रखा, तथा सरकारी कर्मचारियों में पदोन्नति की मांग करने के अंतर्निहित अधिकार के अभाव पर बल दिया।
- इसने इस बात पर बल दिया कि पदोन्नति की नीतियाँ मुख्य रूप से विधायिका या कार्यपालिका का विशेषाधिकार हैं, तथा न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत समानता के सिद्धांतों के उल्लंघन के मामलों तक सीमित है।
XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि यौन अपराध के मामले में आरोपी की ओर से मेडिकल जाँच कराने से मना करना विवेचना में असहयोग करने के समान होगा।
मधुसूदन एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य
- न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि आरोपों में परिवर्तन की स्थिति में, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 217 के अधीन अभियोजन पक्ष एवं बचाव पक्ष दोनों को ऐसे परिवर्तित आरोपों के संदर्भ में साक्षियों को वापस बुलाने या उनसे पुनर्परीक्षा करने का अवसर दिया जाना चाहिये।
अंकुर चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य
- उच्चतम न्यायालय ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट (NDPS) 1985 के अधीन धारा 37 के कड़े मानदण्डों को पूरा न करने के बावजूद जमानत दिये जाने का संज्ञान लिया है।
- इसने इस बात पर बल दिया कि अभियोजन के वाद में अनावश्यक विलंब के कारण लंबे समय तक कारावास संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार का हनन करता है, इस प्रकार ऐसे मामलों में सांविधिक प्रतिबंधों को अनदेखा करने के लिये सशर्त स्वतंत्रता की अनुमति देता है।
NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रियल्टर्स LLP एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली सरकार के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में जहाँ जनहित दांव पर लगा हो, रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत कठोरता से लागू नहीं हो सकता।
- न्यायालय ने ऐसे मामलों में लचीले दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें व्यक्तिगत विवादों से परे उनके व्यापक निहितार्थों को पहचाना गया।
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ द्वारा की गई यह टिप्पणी विधिक कार्यवाही में जनहित पर विचार करने के महत्त्व को प्रकटित करती है।
- दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि “यदि संविधि में बाद में किये गए संशोधन द्वारा विलंब को क्षमा करने के वैध आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह भानुमती का पिटारा खोल देगा, जहाँ बाद में खारिज किये गए सभी मामले इस न्यायालय में आएंगे तथा विधि का नया निर्वचन के आधार पर राहत की मांग करेंगे।”
कस्तूरीपांडियन बनाम RBL बैंक लिमिटेड
- उच्चतम न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 से संबंधित स्थानांतरण याचिका पर निर्णय दिया। न्यायमूर्ति ए.एस. ओका एवं राजेश बिंदल ने शिकायत को स्थानांतरित करने के लिये आरोपी की याचिका को खारिज कर दिया, यह पुष्टि करते हुए कि इस तरह के निर्णय आम तौर पर शिकायतकर्त्ता के पास होते हैं, आरोपी के पास नहीं।
- यह निर्णय ऐसे मामलों में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को स्पष्ट करता है, जबकि आरोपी को आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट मांगने की अनुमति देता है।
उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम वीरेंद्र बहादुर कठेरिया एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में शिक्षा विभाग के अधिकारियों के वेतनमान को लेकर 22 वर्ष पुराने विवाद का निपटान कर दिया है, जिससे हजारों कर्मचारी प्रभावित हो सकते हैं।
- न्यायालय ने मामले का निपटान करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग किया, जिससे सेवानिवृत्त अधिकारियों एवं राज्य सरकार के हितों में संतुलन बना रहा। यह निर्णय उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के मध्य मुकदमेबाजी के कई दौरों से जुड़े मामलों में विलय एवं न्यायिक निर्णय के सिद्धांत के अनुप्रयोग को स्पष्ट करता है।
अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय
- उच्चतम न्यायालय ने माना है कि किसी अभियुक्त को दस्तावेज की वास्तविकता स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये कहना, उसके आत्म-दोषी ठहराए जाने के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।
गौरव कुमार बनाम भारत संघ
- उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया है कि स्टेट बार काउंसिल द्वारा लगाई गई उच्च नामांकन शुल्क असंवैधानिक है क्योंकि यह इच्छुक अधिवक्ताओं के विधिक व्यवसाय के अधिकार का उल्लंघन करती है और समानता के सिद्धांतों को क्षीण करती है।
- न्यायालय ने इन शुल्क पर एक सीमा निर्धारित की है, सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 750 रुपये और SC/उच्चतम न्यायालय अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपये निर्धारित किये हैं, इस बात पर बल जोर देते हुए कि ऐसे शुल्क के द्वारा हाशिए पर पड़े अधिवक्ताओं के साथ भेदभाव नहीं होनी चाहिये।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ
उच्चतम न्यायालय ने माना है कि वर्तमान मामले से निपटने के लिये उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारिता होगी तथा राज्य द्वारा संस्थित वाद संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत स्वीकार्य है।
फ्रैंक विटस बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो
- उच्चतम न्यायालय ने जमानत की उन शर्तों की वैधता पर विचार किया, जिसके अधीन आरोपी व्यक्तियों को अपना स्थान गूगल मैप्स के माध्यम से साझा करना आवश्यक था। न्यायालय ने तर्क दिया कि ऐसी शर्तें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत निजता के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
- इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई इन कठोर शर्तों को चुनौती दी गई थी।
- इस निर्णय ने जमानत के प्रतिबंधों को संवैधानिक अधिकारों के साथ संतुलित करने के महत्त्व को रेखांकित किया, विशेष रूप से भारत में विधिक कार्यवाही का सामना कर रहे विदेशी नागरिकों के संबंध में।
डॉ. भीम राव अम्बेडकर विचार मंच बिहार, पटना बनाम बिहार राज्य
- उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिकार की कमी का तर्क देते हुए बिहार सरकार के 2015 के उस प्रस्ताव को अमान्य कर दिया है, जिसमें अत्यंत पिछड़ी जातियों की सूची से “तांती-तंतवा” समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया था।
- न्यायालय ने राज्य सरकार की कार्यवाही की आलोचना करते हुए इसे दुर्भावनापूर्ण बताया तथा निर्देश दिया कि प्रस्ताव के अंतर्गत की गई नियुक्तियों को अनुसूचित जाति कोटे में वापस कर दिया जाए।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुसूचित जातियों की सूची में किसी भी परिवर्तन के लिये संसदीय विधान की आवश्यकता होती है, न कि कार्यकारी आदेश की।
मिनरल एरिया डेवलपमेंट बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्यों को भारतीय संविधान, 1950 (COI) की दूसरी सूची की प्रविष्टि 50 के अंतर्गत खनिज अधिकारों पर कर लगाने का अधिकार है, जबकि पहली सूची की प्रविष्टि 54 के अंतर्गत संघ के पास नियामक शक्तियाँ हैं। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कर लगाने की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रदान की जानी चाहिये तथा सामान्य नियामक प्रविष्टियों से इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
- इसने यह भी पुष्टि की कि खान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 (MMDR अधिनियम) विधायी क्षमताओं के संवैधानिक वितरण को बनाए रखते हुए खनिज अधिकारों या भूमि पर राज्यों की कराधान शक्तियों को प्रतिबंधित नहीं करता है।
- यह निर्णय 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुनाया गया है जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई चंद्रचूड़ ने स्वयं, माननीय न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, माननीय न्यायमूर्ति अभय एस ओका, माननीय न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, माननीय न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा, माननीय न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ, माननीय न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा एवं माननीय न्यायमूर्ति ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह के द्वारा निर्णय दिया गया।
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जीन कैम्पेन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने आनुवंशिक रूप से हाइब्रिड सरसो के लिये केंद्र सरकार की स्वीकृति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर खंडित निर्णय दिया।
- न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने जनहित संबंधी चिंताओं एवं प्रक्रियागत कमियों का उदाहरण देते हुए स्वीकृति को अमान्य करार दिया, जबकि न्यायमूर्ति संजय करोल ने वैज्ञानिक अवधारणा पर बल देते हुए इसे यथावत रखा।
- अलग-अलग राय के साथ, पीठ ने मामले को मुख्य न्यायाधीश को एक बड़ी पीठ गठित करने के लिये भेज दिया, जिससे आगे की समीक्षा लंबित रहने तक कार्यान्वयन में देरी हुई, जबकि सरकार ने निर्णय के साथ आगे न बढ़ने पर सहमति जताई थी।
पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य
सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के बीच उप-वर्गीकरण को यथावत रखा, ताकि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमजोर वर्गों तक पहुँच सके।
उच्चतम न्यायालय ने राज्यों को अनुसूचित जातियों (SC) को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति दी, ताकि SC श्रेणी के अंतर्गत अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े समूहों के लिये अलग कोटा प्रदान किया जा सके। लेकिन न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने असहमति जताते हुए तर्क दिया कि यह उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341 के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रपति सूची में उपबंधित SC में हस्तक्षेप करता है, जिसे केवल संसदीय विधान द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
उन्होंने चिंता व्यक्त की कि इस तरह के उप-वर्गीकरण से SC-उच्चतम न्यायालय सूची में राजनीतिक कारक शामिल हो सकते हैं, जिससे राजनीतिक प्रभाव को रोकने का इसका मूल उद्देश्य कमजोर हो सकता है।
हर्ष भुवालका एवं अन्य बनाम संजय कुमार बाजोरिया
- न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं प्रशांत कुमार मिश्रा ने विशेष अनुमति याचिकाओं (SLP) के संबंध में एक नया निर्देश जारी किया है, जो 20 अगस्त 2024 से प्रभावी होगा।
- इस निर्देश के अनुसार, किसी भी SLP में किसी विवादित आदेश की प्रमाणित प्रति दाखिल करने से छूट की मांग करने के लिये उच्च न्यायालय से एक रसीद शामिल करनी होगी, जिसमें प्रमाणित प्रति के निवेदन की पुष्टि की गई हो, यह बताया गया हो कि प्रति के लिये आवेदन अभी भी वैध है एवं प्रमाणित प्रति को तुरंत जमा करने का वचन देना होगा। इसका उद्देश्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना एवं आवश्यक दस्तावेजों को समय पर जमा करना सुनिश्चित करना है।
रामनरेश उर्फ रिंकू कुशवाह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि अपीलकर्त्ताओं को प्रवेश देने से मना नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे मेधावी थे और उन्हें अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश दिया जा सकता था।
रेखा शर्मा बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर एवं अन्य
- न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों को प्रदान किया गया आरक्षण समग्र क्षैतिज आरक्षण के रूप में है, इसलिये अलग से कटऑफ की कोई आवश्यकता नहीं है।
के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने केनरा बैंक द्वारा अनुसूचित जाति (SC) कोटे के अंतर्गत वैध जाति प्रमाणपत्रों के आधार पर नियुक्त किये गए कर्मचारियों को कारण बताओ नोटिस को खारिज कर दिया। ये नोटिस 1977 के सरकारी परिपत्र के बाद जारी किये गए थे, जिसमें ‘कोटेगारा’ समुदाय को SC श्रेणी के यथावत माना गया था, जिसे बाद में महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद (2000) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद अमान्य माना गया।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल राष्ट्रपति ही भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 341 एवं 342 के अंतर्गत SC एवं उच्चतम न्यायालय की सूचियों को संशोधित कर सकते हैं, जिससे राज्य सरकार का संशोधन अमान्य हो जाता है।
मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (MADA निर्णय)
- उच्चतम न्यायालय ने MADA निर्णय को संभावित रूप से रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया (जुलाई 2024)।
- हालाँकि, इसने राज्यों एवं करदाताओं के हितों को संतुलित करने के लिये कुछ शर्तें रखीं:
- राज्य 1 अप्रैल 2005 से पहले के लेन-देन के लिये प्रासंगिक प्रविष्टियों के अंतर्गत कर नहीं लगा सकते।
- 1 अप्रैल 2026 से शुरू होने वाले 12 वर्षों में कर मांगों का भुगतान किया जाएगा।
- 25 जुलाई 2024 से पहले की अवधि के लिये मांगों पर ब्याज एवं जुर्माना सभी करदाताओं के लिये माफ किया जाएगा।
किशोरचंद्र छंगनलाल राठौड़ बनाम भारत संघ एवं अन्य
- उच्चतम न्यायालय ने परिसीमन आयोग के आदेशों की समीक्षा करने के अपने अधिकार को यथावत रखा है, यदि उन्हें स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी या संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला माना जाता है। हालाँकि परिसीमन के मामलों में न्यायिक समीक्षा सामान्य तौर पर प्रतिबंधित है, लेकिन न्यायालय तब हस्तक्षेप कर सकता है जब कोई आदेश संवैधानिक मूल्यों के साथ गंभीर रूप से संघर्ष करता हो।
अल्लारखा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य
- न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि घटनास्थल की पहचान संबंधी परिस्थिति अस्वीकार्य है, क्योंकि अपराध स्थल पुलिस को पहले से ही ज्ञात था।